संकलन:मोहम्मदअली वफा*مُحمدعلی،وَفا
بہادرشاہ طَفَر* لگتا نہیں ہے جی میرا اُجڑے دیار میں*
لگتا نہیں ہے جی میرا اُجڑے دیار میں
کس کی بنی ہے عالمِ ناپائیدار میں
بُلبُل کو پاسباں سے نہ صیاد سے گلہ
قسمت میں قید لکھی تھی فصلِ بہار میں
کہہ دو اِن حسرتوں سے کہیں اور جا بسیں
اتنی جگہ کہاں ہے دلِ داغدار میں
اِک شاخ گل پہ بیٹھہ کے بُلبُل ہے شاد ماں
کانٹے بِچھا دیتے ہیں دل لالہ زار میں
عمرِ دراز مانگ کے لائے تھے چار دِن
دو آرزو میں کٹ گئے، دو اِنتظار میں
دِن زندگی کے ختم ہوئے شام ہوگئی
پھیلا کے پائوں سوئیں گے کنج مزار میں
ہے کِتنا بدنصیب ظفر، دفن کے لئیے
دو گز زمین بھی نہ ملی کوئے یار میں
बहादुर शाह ज़फ़र
बहादुरशाह जज़फरका आखरी कयाम ,हुमायुं का मकबरा.जहांसे अंग्रेज पुलिसने उनको पकडकर उन्हे,बरमा(म्यानमार) जलावतनी करदी.
लगता नहीं है जी मेरा_ बहादुर शाह ज़फ़र
लगता नहीं है जी मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलमे-ना-पायदार में
बुलबुल को बाग़बां से न सय्याद से गिला
क़िस्मत में क़ैद थी लिखी फ़स्ले-बहार में
कहदो इन हसरतों से कहीं और जा बसें
इतनी जगह कहां है दिले दाग़दार में
एक शाख़े-गुल पे बैठ के बुलबुल है शादमां
कांटे बिछा दिए हैं दिले-लालज़ार में
उम्रे-दराज़ मांग के लाए थे चार दिन
दो आरज़ू में कट गए दो इंतिज़ार में
दिन ज़िंदगी के ख़त्म हुए शाम हो गई
फैला के पांव सोएंगे कुंजे मज़ार में
कितना है बदनसीब ज़फ़र दफ़्न के लिए
दो गज़ ज़मीं भी मिल न सकी कूए-यार में
दो गज जमीं के लिये तडपते खातेमुनशहेनशाहे मुघलिया बहादुरशाह जमीन का आखरी मस्कन.
दिल्ली से अपने विदा होने को बहादुर शाह ज़फ़र ने इन शब्दों में बांधा है:
जलाया यार ने ऐसा कि हम वतन से चले
बतौर शमा के रोते इस अंजुमन से चले
न बाग़बां ने इजाज़त दी सैर करने की
खुशी से आए थे रोते हुए चमन से चले
जायेगा_ अज्ञात
न मालो हकुमत न धन जायेगा.
तेरे साथ बस एक कफन जायेगा.
बचा भी न कोइ कि नोहा करे
पारायों के कांधे बदन जायेगा.
जिलावतनी ओढे तु सोता रहा,
यादों में लिपटा गगन जायेगा
मुलक कि मट्टी की चादर कहां,?
जफर तु तो अब बे वतन जायेगा.
दो गज जमीं के लिये तडपते खातेमुनशहेनशाहे मुघलिया बहादुरशाह जमीन का आखरी मस्कन.
ये क़िस्सा है रोने रुलाने के क़ाबिल
आखिरी मुगल बादशाह बहादुरशाह जफर और उर्दू के बेहद मकबूल शायर मिर्जा असादुल्ला खाँ ग़ालिब उर्फ मिर्जा गालिब के बिना गदर की कोई कहानी पूरी नहीं होती लेकिन इस समय हिंदी और उर्दू के आलिम-ओ-फाजिल जिस नुक्त-ए-नजर से शायद उस दौर को देखने की जहमत नहीं उठा रहे हैं. जफर न सिर्फ एक अच्छे शायर थे बलि्क मिजाज से भी बादशाह कम, एक शायर ज्यादा थे. मुगल सल्तनत के आखिरी ताजदार बहादुरशाह जफर अपनी एक गजल में फरमाते हैं-
या मुझे अफ़सरे-शाहाना बनाया होता
या मेरा ताज गदायाना बनाया होता
अपना दीवाना बनाया मुझे होता तूने
क्यों ख़िरदमंद बनाया न बनाया होता
यानी मुझे बहुत बड़ा हाकिम बनाया होता या फिर मुझे सूफ़ी बनाया होता, अपना दीवाना बनाया होता लेकिन बुद्धिजीवी न बनाया होता. भारत के पहले स्वतंत्रता आंदोलन के 150 साल पूरे होने पर जहाँ बग़ावत के नारे और शहीदों के लहू की बात होती है वहीं दिल्ली के उजड़ने और एक तहज़ीब के ख़त्म होने की आहट भी सुनाई देती है. ऐसे में एक शायराना मिज़ाज रखने वाले शायर के दिल पर क्या गुज़री होगी जिस का सब कुछ ख़त्म हो गया हो. बहादुर शाह ज़फ़र ने अपने मरने को जीते जी देखा और किसी ने उन्हीं की शैली में उनके लिए यह शेर लिखा:
न दबाया ज़ेरे-ज़मीं उन्हें,
न दिया किसी ने कफ़न उन्हें
न हुआ नसीब वतन उन्हें,
न कहीं निशाने-मज़ार है
बहादुर शाह ज़फ़र ने दिल्ली के उजड़ने को भी बयान किया है. पहले उनकी एक ग़ज़ल देखें जिसमें उन्होंने उर्दू शायरी के मिज़ाज में ढली हुई अपनी बर्बादी की दास्तान लिखी है:
http://www.youtube.com/watch?v=-pUZdP53mu8
बहादुर शाह ज़फ़र (1775-1862) भारत में मुग़ल साम्राज्य के आखिरी शहंशाह थे और उर्दू भाषा के माने हुए शायर थे। उन्होंने 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में भारतीय सिपाहियों का नेतृत्व किया। युद्ध में हार के बाद अंग्रेजों ने उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) भेज दिया जहाँ उनकी मृत्युहुई.
कहा जाता है कि ये गजल ईनकी जिंदगीकी आखरी गझल थी.
न कोइ कागज था, न कित्ता.मुघलिया सलतनत के ये अखिरी फरमां रवांने कोयलेसे झिन्दान की कोठरीकी दीवार परये गजल लिखी.
ये बडी ईब्रतनाक गजल है.
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bahut hi sundar lekh,sundar gazalen
By: mehek on مارچ 7, 2008
at 6:57 شام
बहादुर शाह जफ़र की गजलों को पढकर उनकी भारत के प्रति देशभक्ति का पता चलता है। आपके इस प्रयास के लिए धन्यवाद।
सौरभ कुमार
ब्रांड बिहार. काम
By: Saurabh on مئی 17, 2009
at 6:35 صبح