Posted by: Bagewafa | اگست 26, 2010
मधु गीति–गोपाल बघेल ‘ मधु ‘
मधु गीति–गोपाल बघेल ‘ मधु ‘
यान आकाश में जो उड़ के चला
(मधु गीति सं. १२३४, दि. २७ जुलाई, २०१०)
यान आकाश में जो उड़ के चला, उसकी छाया ने मुझे आके छुआ;
धूप में बैठा हुआ रहा मैं छाया चहा, यान छाया ने सूक्ष्म प्रेम किया.
उसने हलके से छुआ, वराभय जैसे दिया; त्वरित गति में वो रहा, छाँव को संग लिया.
रूप उसका था बड़ा, ध्वनि वो करता गया; ज्यों ही मैं देखा किया, दूर वह चलता गया.
सूर्य था तेज लिया, बदली ना जमने दिया; पुष्प को मुरझा दिया,चिड़ि को छुपा दिया.
भाव में चाहा किया, भाव कोई न दिया; यान यह समझा किया, शीष ऊपर से गया.
यान जो बैठे हुए, भाव आकर के दिए; सूक्ष्म तन छाँव दिए, अपना अहसास दिए.
यान की काया छिपे, कान कुछ कहते गए, यान की छाया बसे, ध्यान करवा वे गए.
यान में ध्यान किया, मन को आके था छुआ; सूक्ष्म मन धरा दिया, तन मेरा आके छुआ.
छाँव बन ‘मधु’ को छुआ, दिल को दी आके दुआ; धूप बन दग्ध किया, छाँव बन मुग्ध किया.
स्वप्निल जगत की सौदामिनी में
(मधु गीति सं. १२४२, दि. ३ अगस्त, २०१०)
स्वप्निल जगत की सौदामिनी में, छन्दित प्रकृति की मधु यामिनी में;
स्पन्दित तन मन की मन्द्रित गति में, मंत्रित जगत की थिरकित कृति में.
प्राणों भरी श्वाँस आश्वास उर देत, चंद्र किरण लखि लेत आशीष लभि लेत;
सुर पातु यामिनि ते, यमुना ते गति पातु, सौदामिनी तेज तेजल करत जात.
स्पन्दन छन्दन कौ, अभिनन्दन सुजनन कौ, सुर बनि फुरत जात, उर कूँ लसत जात;
स्वप्निल हृदय में आनन्द भरि देत, जागृत जगत में सुजनन कूँ सुर देत.
प्रति दिन प्रगति आत, नूतन भव लखि पात, भावउ बदलि जात, प्रति उर प्रखर होत;
स्पन्दन नन्दन वन, आनन्दित मन त्रिभुवन, चिर पुलकित पावन मन, संस्कारित सुजनन मन.
सोहं कौ सुर भात शेफाली सुरभि में, कानन में कवि गात प्रभु की ‘मधु’ भक्ति में;
उद्यम कौ द्रुम न्हात कृपा भरे वारि में, आत्मा वरि जग लेत, प्रभु के वराभय में.
रचयिता: गोपाल बघेल ‘ मधु ‘
टोरोंटो, ओंटारियो, कनाडा
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