Posted by: Bagewafa | ستمبر 16, 2012

मसूरी किलिंग 2 (16-17 सितंबर, 2012)—-अजीज बर्नी

मसूरी किलिंग 2 (16-17 सितंबर, 2012)

इंजीनियर ज़ियाउर रहमान साहब , बराए मेहरबानी मेरा जवाब नोट फ़रमा लें (१) आरएसएस माई फ़ुट (My Foot) वो मेरे लिखने से डर गए, मैं नहीं (२) मैं बटला हाऊस, 26/11 और गोपाल गढ़ पर हुकूमते हिन्द के रुख के ख़िल

ाफ़ था, क्या आप को और मिसालों की ज़रूरत है, (३) मैं सहारा उर्दू का एडिटर नहीं हूँ, इसलिए मैं कैसे लिख सकता हूँ, मैंने इन सवालों के जवाब बारहा दिए हैं और अब ये मुझे तकलीफ़ देते हैं,

और रंजन ज़ैदी साहब हिंदुस्तान में हमने आज़ादी की जंग बंदूक़ से नहीं क़लम से जीती है। मौलाना आज़ाद, मौलाना हसरत मोहानी, मौलाना मोहम्मद अली जौहर का क़लम था जिसने हमें आज़ादी दिलाई। तहरीक रेशमी रूमाल हमारी जंग का तरीक़ा था हम जानते हैं जम्हूरियत के मानी। हमने अपना ख़ून दे कर जम्हूरियत हासिल की है, ख़ून दे कर जम्हूरियत को बचाए हुए हैं लेकिन ये पूछने का हक़ तो दोगे कि कब तक इस जम्हूरियत के पौधे को सिर्फ हमें अपने ख़ून से सींचना होगा? कोई लेक्चर याद नहीं रहता, मेरे भाई जब अपने आंगन में जवान भाई की लाश पड़ी हो, हाथ में क़लम नहीं है, पांव में ज़ंजीरें हैं। फेसबुक पर आकर चंद लाइनें लिख रहा हूँ वो भी बर्दाश्त नहीं, हाँ मैं कमांडर हूँ ख़ुद साख़्ता फ़ौज का जिस में कोई सिपाही है भी या नहीं मुझे नहीं मालूम लेकिन जंग लड़ना मुझे हथियारों के बगैर है, वो जानते हैं मेरी जंग का तरीक़ा जिन्होंने देखा है सरकारों को बनते और बिगड़ते हुए मेरे ज़रिए। वो ख़ुश हैं हथियार छीन लेने पर लेकिन भूल गए हैं महाभारत की जंग, कौरवों के पास कृष्ण की सेना थी और पांडवों के पास अकेले कृष्ण। जंग कौन जीता, तारीख़ उठा कर देख लो। कर्बला की जंग मेरे सामने है। फ़ौज यज़ीद के पास थीं और इमाम हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू के पास सिर्फ उनके अज़ीज़ और अहले ख़ाना, जिनमें औरतें और 6 महीने के अली असग़र भी शामिल थे। मुझे इस जंग के लिए ऐसे ही कमीटेड (COMMITTED) जाँबाज़ों की ज़रूरत है, जो एक नई तारीख़ लिखने का हौसला रखते हों, मैं तो सहारा में लिखने का सिलसिला बंद होने के बाद से ही गोशा नशीनी में चला गया था। सोच लिया था परवरदिगार को मुझ से जो काम लेना था ले लिया अब ख़ामोशी से बंद कमरे में मौत का इंतेज़ार करूंगा या कुछ पल जी सका तो दुनिया को भूल कर अपने लिए जीने की कोशिश करूंगा, पर क्या करूं हर मोड़ पर एक बेगुनाह की लाश देख कर नजरअंदाज़ तो नहीं कर सकता।

आज ही ज़िंदगी को जहन्नुम बना देने वाले एक मेहरबान को लिखा था, कि मौत से बदतर ज़िंदगी देने की सज़ा के बजाए ज़हर ही भेज दो कि अब जीना दुश्वार हो गया है। मायूस या ख़ौफ़ज़दा नहीं।

आप ने देखा मसूरी में 14 साल से 35 साल तक के नौजवानों को गोली मार कर क़त्ल कर दिया। गोली सिर पर या पेट में लगी और मुझे ये सवाल करने का हक़ ना हो कि ऐसा क्यों किया गया? मुझे वहां जाने की इजाज़त ना दी जाय। मुझे ये समझाया जाय कि ये जम्हूरियत है और निज़ाम अपना काम करेगा। अदलिया अपना काम करेगी। हम लाशों का अंबार देखते रहें हक़ की आवाज़ बुलंद ना करें। हम ने पढ़ा है आईने हिंद को, हम समझते हैं अपने जम्हूरी हुक़ूक़ को, उसूलों के तहत आवाज़ उठाना, हमें मत सिखाओ क्या लिखना और बोलना है। सब्र का पैमाना अब लबरेज़ हो चुका है और इम्तेहान ना लें, ये जम्हूरियत के ठेकेदार इन्क़लाब की उस आहट को सुन लें, ज़ुल्म जब हद से गुज़र जाता है तो कमज़ोर और लाचार दिलों से उठने वाली दुआएं तोपों के रुख मोड़ देती हैं।

मिस्टर आज़म ख़ान आप शो पीस की इमेज से बाहर निकलें और मुझे ये मत कहें कि मैं आप को सिखाने की कोशिश ना करूं कि आप को क्या करना है, क़ौम ने आप को वोट सियासी तमगों और वेज़ारत के लिए नहीं दिया है, मेरे पास वो तमाम रिकार्ड हैं , जब पार्टी से निकाले जाने पर आप ने मुलायम सिंह जी को कहा था। वो आप का ज़ाती मामला था तो आग बबूला हो गए और अब क़ौम का सवाल आया तो ज़बान पर ताले क्यों? हमें आप जैसे तमाम मुस्लिम चेहरों से शिकायत है जिन का चेहरा दिखा कर मुसलमानों का वोट लिया जाता है लेकिन ज़रूरत पढ़ने पर वो नज़र नहीं आते अब हम आप को छिपने नहीं देंगे। 7 पर्दों से भी ढूँढ निकालेंगें। आपको जवाब देना होगा बेगुनाहों के क़त्ले आम का, वर्ना क़ौम आप को जवाब देगी, ख़ामोश नहीं रहेगी……………….

(Courtesy:Facebook Aziz Burney)


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